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अगस्त कवर 2025

अगस्त 2025 (1945 से लगातार प्रकाशित साहित्य और संस्कृति का मासिक)




आगामी अंक




इस अंक में

प्रसंगवंश

कहानी और कविता पर केन्द्रित अंक की शृंखला की अगली कड़ी में इस माह हिन्दी साहित्य की ऐसी विधा को छूने का प्रयत्न किया गया है जो व्यक्ति की अंतरंग अनुभूतियों को व्यक्त करने का सबसे सुंदर माध्यम माना जाता है। यह विधा है- ललित निबन्ध, जो गद्य लेखन को सौन्दर्य, भावना और वैचारिकता का अद्भु त सम्मिलन प्रदान करती है। यह जीवन के अनुभवों, संस्कारों, प्रकृति, संस्कृति, कला और समाज के प्रति लेखक की संवेदनशील दृष्टि का कलात्मक रूपांतरण है। आज का साहित्य जिस दौर से गुज़र रहा है, उसमें पत्रकारिता, सोशल मीडिया और तथाकथित ‘फ़ास्ट कंटेंट’ का दबाव है। लोग गहन अध्ययन और सरस गद्य पढ़ने के बजाय त्वरित और तथ्यात्मक लेखन पर ज्यादा झुके हैं लेकिन इसके बावजूद ललित निबन्ध की प्रासंगिकता और संभावना बनी हुई है। हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल, पदुमलाल पुन्नालाल ब़ख्शी, और बाद में अज्ञेय, विष्णु प्रभाकर, प्रभाकर माचवे, हरिशंकर परसाई, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, बालमुकुंद गुप्त, श्यामसुंदर दास जैसे लेखकों ने ललित निबन्ध को नई ऊँचाइयाँ प्रदान की। शैली में सरसता, विनोद और मानवीयता तथा विचार और भावों का संतुलन इस विधा को रोचक बनाता है। विष्णु नागर, ज्ञान चतुर्वेदी, मृदुला गर्ग, प्रियंवद आदि के लेखन ने इस विधा को आगे बढ़ाया है। नए लेखक आत्मवृत्त, प्रकृति, संस्कृति, स्मृति और सामाजिक परिवर्तन जैसे विषयों को सहज, प्रभावशाली और कलात्मक ढंग से प्रस्तुत कर रहे हैं। साथ ही नई सुविधाओं से परिपूर्ण आज के दौर में वे ब्लॉगिंग, ई-पत्रिकाओं और पॉडकास्ट का सहारा लेकर इस विधा को नए पाठकों तक पहुँचा रहे हैं। अगस्त का महीना भारतीय चेतना में स्वतन्त्रता, बलिदान और आत्म गौरव का प्रतीक है। यह माह केवल ऐतिहासिक दृष्टि से ही नहीं, साहित्यिक संवेदना के स्तर पर भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारत की स्वतन्त्रता की वर्षगाँठ, रक्षाबंधन का पर्व, वर्षा ऋतु में प्रकृति का सौंदर्य- ये सभी विषय साहित्यकारों की लेखनी को प्रेरणा देते रहे हैं। अनेक कवियों और निबंधकारों ने घनघोर बादल, झूमती धरती, हरियाली और सावन की अनुभूतियों को शब्दों में पिरोया है। स्वतन्त्रता संग्राम की स्मृतियों ने भी साहित्य में एक ओजपूर्ण और प्रेरक प्रवाह पैदा किया है। राजेंद्र गौतम का आलेख स्वतन्त्रता और साहित्य के गहन सम्बन्धों को प्रकट करता है। हिन्दी फ़िल्म संगीत के इतिहास में कुछ नाम ऐसे हैं जिन्होंने अपने शब्दों की मर्मस्पर्शिता, सरलता और भावप्रवणता से श्रोताओं के हृदय में स्थायी स्थान बना लिया। ऐसे ही एक गीतकार थे ‘इंदीवर’। उनका वास्तविक नाम श्यामलाल बाबू राय था लेकिन प्रसिद्धि अपने उपनाम इंदीवर से प्राप्त की। इंदीवर का जन्म 15 अगस्त, 1924 को उत्तर प्रदेश के झाँसी ज़िले में हुआ था। उनका रुझान बचपन से ही साहित्य और कविता की ओर था। शगार, करुणा तथा ृं दर्शन से भरे गीतों की रचना करने वाले इंदीवर हिन्दी और उर्दू भाषा के अच्छे ज्ञाता थे। उन्होंने साहित्यिक पत्रिकाओं में कविता लेखन से अपने रचनात्मक जीवन की शुरुआत की थी, परंतु बाद में फिल्मों की ओर रुख़ किया और वहीं पर उन्होंने अपनी पहचान एक संवदे नशील गीतकार के रूप में स्थापित की। उनके गीतों को देखें तो उनमें विविधता और भावप्रवणता स्पष्ट हो जाती है। ग़म और सौन्दर्य के संगम को अभिव्यक्त करता हुआ गाना ‘दिल आज शायर है, ग़म आज नग़मा है’ border: none; font-size: 22px; font-style: italic; color: #F5F0BB;">....अधिक पढ़ने के लिए

प्रमुख आलेख

मसूर की दाल (ललित निबंध)

लेखक : हरिशंकर राढ़ी

सुबह उठा ही था कि नथुनों में एक परिचित-सी स्वादगंध टकराई। चाहें तो इसे पकवान-गंध भी कह सकते हैं।
व्यंजन-गंध कहें तो किंचित कठिन भी होगा और द्वि-अर्थात्मक भ्रम। स्वादगंध ही ठीक है, क्योंकि इससे स्वाद
और गंध के गठजोड़ की स्पष्ट पहचान हो जाती है। एक तो लेखक, दूजे सठियाने की उम्र, सो तुरंत ही गंध को
पहचानने में मस्तिष्क ने असहयोग कर दिया। है तो कुछ जानी-पहचानी स्वादगंध, किंतु अतिथि-सी है। कभी-कभी
आने वाली; रसोईघर में इसका निवास स्थायी नहीं है। है तो अतिथि गंध, लेकिन फेरा लगाती रहती है। सारे रिश्ते-
नाते तोड़कर भूल जाने वाली अतिथि नहीं है। कौन है यह? मन हुआ कि ‘प्रसाद’ के शब्दों में उससे कहूँ कि
‘परिचित से जाने कब के, तुम लगे उसी क्षण हमको’, लेकिन याद नहीं आ रहा कि तुम हो कौन! हार मानकर सिर
के पिछवाड़े पर टुनकी बजाया तो याद आया- अरे यार, यह तो मसूर की दाल की गंध है। टुनकी खाते ही दिमाग
चल निकला, जैसे सीधी उँगली घी नहीं निकलता। अब इसने स्वादगंध ही नहीं पहचाना, इसका इतिवृत्त भी याद
करने लगा। यह बहुत पुरानी स्वादगंध है, इतनी पुरानी कि माँ और चैत-वैशाख की याद दिला गई। मसूर और यादें
जैसे-जैसे पक रही हैं, स्वादगंध बढ़ती जा रही है।
दिमाग चल गया तो मन कहाँ रुकता। धर्मराज युधिष्ठिर ने मन को संसार में सर्वाधिक गतिमान बता रखा है।
शायद इसकी तीव्रगति से सर्तक होकर ऋषियों ने ‘तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु’ की कामना की होगी। इतनी
तीव्रगति से चलने वाला वाहन कब, कहाँ दुर्घटना कर बैठे और साथ में किस-किसकी जीवनलीला लील ले, कौन
जानता है? शिव ही इसका कल्याण करें, क्योंकि बिगड़ों-सिगड़ों को नियंत्रित करना और उन्हें सही राह पर लगा
देना शिव के ही वश का है। कल्पित पंख वाले बेलगाम घोड़े की तरह नालायक जहाँ-तहाँ उड़ता रहता है और अपनी
आँखों से पता नहीं क्या-क्या देख आता है। मसूर की दाल की सुगंध लेकर मन का घोड़ा उड़ा तो माँ के काल में
पहुँच गया, जब मसूर की दाल केवल चैत-वैशाख में बनती थी। साल के दो महीने में कभी-कभी बनने वाली इस
दाल की गंध कितनी प्रवण रही होगी कि आज भी मन को महका जाती है!

विशिष्ट/फोकस/विशेष आलेख

बचकर रहना इस...

लेखक : डॉ. महेश परिमल

प्रेयसी यदि कहे कि तुम तो बुद्धू हो, तुम्हें तो कुछ भी नहीं आता। यहां पर प्रेमी मेधावी है, ऊंचे पद पर है, कुछ हद तक बलिष्ठ भी, पर अपनी प्रेयसी के ऐसे वाक्य सुनकर उसका पौरुष नहीं जागता। वह फिर कुछ ऐसा करता है कि प्रेयसी कुछ इसी तरह के वाक्य कहती रहे। इस तरह से दोनों के बीच नोंक-झोंक चलती रहती है और प्यार की डोर मजबूत होती जाती है। यहां पर..तो... हमारे सामने एक नए रूप में सामने आया ही ना। इस तरह से यह ..तो...हमारे सामने कई रूपों में आता ही रहता है। जीवन में इसका महत्व भी है। फिल्म वाले भी इस शब्द को लेकर फिल्में बनाते रहे हैं। “जैसे प्यार तो होना ही था”, “आप तो ऐसे न थे।” इन दोनों नामों में पहले में प्यार और दूसरे में आप को महत्व दिया गया है। दोनों शब्दों के आसपास यह ..तो… ही है। व्यक्ति को महत्वपूर्ण बनाने में भी इसकी भूमिका है। 
छोटा-सा अव्यय है यह ..तो…, लेखन में भले ही यह अपना प्रभाव न छोड़ता हो, पर वार्तालाप के दौरान यह हमें अपने कई रूपों के दर्शन करवाता है। अब यदि आपके सामने कोई अपना आए, तो उसके वार्तालाप पर ध्यान अवश्य दें। बातचीत के दौरान वह कब, किन हालात में ..तो...का प्रयोग करता है। आप उसे तुरंत पहचान जाएंगे। उसकी नीयत को जान जाएंगे। इस तरह से कई..तो… आते रहेंगे और जाते भी रहेंगे। पर हमें अपने इस ..तो… के साथ दृढ़ रहना है, यह समझ लें, नहीं ..तो...।

FROM PREVIOUS ISSUES

April 2023

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प्रेमचन्द और फ़िल्मी अनुभव

प्रेमचन्द के फ़िल्मी अनुभवों का संसार मुश्किल से एक वर्ष का है। फ़िल्म में जाने का उनका कोई इरादा नहीं था, लेकिन ‘हंस’ और ‘जागरण’ की आर्थिक हानि ने उन पर बम्बई (अब मुम्बई) जाने का दबाव डाला और उन्होंने अपने पत्रों में भी इसे स्वीकार किया कि यह उनके जीवन की सबसे बड़ी ग़लती थी। प्रेमचन्द मुम्बई पहुँचकर अजन्ता सिनेटोन कम्पनी में कहानी-संवाद लेखक का कार्यभार सम्भालते हैं और अपनी पत्नी शिवरानी देवी को पत्र में लिखते हैं, “अभी मैं नहीं कह सकता कि मैं यहाँ रह भी सकूँगा या नहीं। जगह बहुत अच्छी है, साफ़-सुथरी सड़कें, हवादार मकान लेकिन जी नहीं लगता। जैसी कहानियाँ मैं लिखता हूँ उन्हें निभाने के लिए यहाँ कोई ऐक्ट्रेस ही नहीं है। मेरी एक कहानी यहाँ सबको अच्छी लगी लेकिन यहाँ की ऐक्ट्रेसें उसे निभा नहीं सकतीं। उसे निभाने के लिए कोई पढ़ी-लिखी ऐक्ट्रेस...

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