प्रसंगवंश
अप्रैल, 2024
हिंदी जुलाई माह की शुरुआत होती है ‘राष्ट्रीय चिकित्सक दिवस’ से। पहली जुलाई को भारत रत्न और महान चिकित्सक, शिक्षाविद्, स्वतन्त्रता सेनानी तथा पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमन्त्री डॉ. बिधान चन्द्र राय की जयंती एवं पुण्य तिथि, दोनों है। 1882 में पटना ज़िले में जन्मे डॉ. बिधान चन्द्र राय उन दिनों एम.आर.सी.पी. और एफ़.आर.सी.एस. की उपाधियाँ प्राप्त करने वाले भारत के गिने-चुने डॉक्टरों में से थे। उन्होंने चिकित्सक के रूप में अनेक ज़िन्दगियों को नई आशा दी। साथ ही कर्मठ राजनेता के तौर पर 1948 से 1962 तक पश्चिम बंगाल के मुख्यमन्त्री रहे डॉ. राय ने आईआईटी खड़गपुर, दुर्गापुर स्टील प्लांट, चितरंजन सेवा सदन जैसे संस्थानों की स्थापना में योगदान दिया। उनकी स्मृति में समर्पित यह दिन न केवल उनके योगदान को स्मरण करने का, बल्कि उन लाखों डॉक्टरों के प्रति आभार प्रकट करने का भी अवसर है, जो दिन-रात रोगियों की सेवा में समर्पित रहते हैं। डॉक्टर केवल चिकित्सा नहीं करते, वे प्राणों के रक्षक भी हैं। पूरी दुनिया में लोगों के मन-मस्तिष्क में कोविड-19 महामारी की भयावह स्मृति आज भी जीवित होगी जब सभी अभूतपूर्व संकट काल से दो-चार हो रहे थे। उस समय डॉक्टर ही वह मज़बूत स्तम्भ थे जिन पर समाज की आशा टिकी थी। जान जोखिम में डालकर डॉक्टरों ने कोविड मरीज़ों की सेवा की, महीनों तक अपने परिवार से दूर रहे और कई डाक्टरों ने तो अपने जीवन का बलिदान भी कर दिया। उनकी सेवा-भावना, धैर्य और समर्पण समाज के हर वर्ग को प्रभावित करता है। हमारे देश में कई ऐसे विशिष्ट व्यक्तित्व हुए हैं जिन्होंने न केवल चिकित्सा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया, बल्कि साहित्य के क्षेत्र में भी अपनी अमिट छाप छोड़ी, अपनी सर्जनात्मक क्षमता का परिचय दिया। उन्होंने मानवता की सेवा को शब्दों में ढालकर समाज को नई दृष्टि दी है। ये व्यक्तित्व इस बात का प्रमाण हैं कि एक सच्चा डॉक्टर न केवल शरीर का उपचार करता है, बल्कि साहित्य के माध्यम से आत्मा को भी छूने की क्षमता रखता है। इस अंक में हमने ऐसे व्यक्तित्व वाले चिकित्सकों की रचनाओं को सम्मिलित किया है। ऐसे बहुआयामी लोगों का जीवन आज की पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्रोत है। एक जुलाई को हिन्दी साहित्य के यथार्थवादी कहानीकारों में से एक अमरकांत का जन्मदिवस भी है और यह वर्ष उनकी जन्म शताब्दी का वर्ष भी। अमरकांत की कहानियाँ और उपन्यास भारतीय समाज के उस हिस्से को उजागर करते हैं जो प्रायः उपेक्षित रह जाता है। यह अवसर है उनके साहित्यिक अवदान को स्मरण करने और उस संवेदना को समझने का, जो उनकी लेखनी की मूल चेतना रही है। 1925 में उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले में जन्मे अमरकांत ने स्वतन्त्रता आंदोलन से प्रेरित होकर विद्यार्थी जीवन में ही समाजसेवा और लेखन की ओर रुख़ किया। वे लम्बे समय तक पत्रकार रहे और बाद में पूर्णतः साहित्य को समर्पित हो गए। अमरकांत मूलतः कहानीकार थे, लेकिन उन्होंने उपन्यास, निबन्ध और रचनात्मक लेखन में भी उल्लेखनीय योगदान दिया। उनकी रचनाओं की सबसे बड़ी विशेषता यथार्थ का निर्भीक चित्रण है। वे प्रेमचन्द की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले लेखक माने जाते हैं, लेकिन उनकी शैली और दृष्टिकोण स्वतन्त्र है। वे नायक की जगह आम आदमी को केन्द्र में रखते हैं और उसके संघर्ष, विषाद, लाचारी और स्वाभिमान को अत्यंत आत्मीयता से प्रस्तुत करते हैं। उनका निधन 17 फ़रवरी 2014 को हुआ। अमरकांत के अमर व्यक्तित्व पर आलेख इस अंक में है। गुरु दत्त भारतीय सिनेमा के इतिहास में ऐसा नाम है, जिन्हें केवल एक कलाकार या निर्देशक नहीं, बल्कि एक युगद्रष्टा के रूप में याद किया जाता है। 9 जुलाई, 1925 को जन्मे विलक्षण प्रतिभा के धनी फ़िल्मकार गुरु दत्त की जन्मशती एक ऐसा सुअवसर है जब हम उन्हें, उनके सौन्दर्यबोध और सिनेमा की तकनीकी ऊँचाइयों को छूने वाले ऐसे व्यक्तित्व के रूप में याद करते हैं जिन्होंने समाज की गहन सच्चाइयों को संवेदनशीलता से उजागर किया। गुरु दत्त ने सिनेमा को केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि आत्मा की संवेदना से जोड़ने का प्रयास किया। उनकी फ़िल्मों में प्रकाश और छाया का ऐसा कलात्मक प्रयोग मिलता है, जो उस समय भारतीय सिनेमा में अनछुआ था। उनकी फ़िल्म ‘प्यासा’ (1957) एक संवेदनशील कवि के संघर्ष को दर्शाती है जो समाज की उपेक्षा और भौतिकवाद से पीड़ित है। इसमें गुरु दत्त की मानवीय दृष्टि और सामाजिक आलोचना स्पष्ट रूप से दिखाई देती है जबकि ‘काग़ज़ के फूल’ (1959) भारतीय सिनेमा की पहली सिनेमास्कोप फ़िल्म मानी जाती है। यह फ़िल्म एक निर्देशक की व्यथा और सिने-जगत की अस्थिरता को दर्शाती है। ‘चौदहवीं का चाँद’, ‘साहब बीवी और ग़ुलाम’ जैसी फ़िल्में महिलाओं की स्थिति और समाज में उनकी भूमिका पर गहरी संवेदना के साथ बनी थीं। उनकी फ़िल्मों के गीत केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि विचार और भावना के वाहक थे। उनकी फ़िल्मों में भ्रष्टाचार, पाखंड, वर्ग विभाजन, महिला शोषण जैसे विषयों को प्रमुखता से उठाया गया। वे किसी उपदेशक की तरह नहीं, बल्कि एक संवेदनशील मनुष्य की तरह समाज से संवाद करते है। 1964 में उनकी असामयिक मृत्यु ने एक स्वर्णिम युग को असमाप्त छोड़ दिया। गुरु दत्त का नाम भारतीय सिनेमा के उस अध्याय में अंकित रहेगा, जहाँ संवेदना, कला और सत्य का संगम होता है। आशा है, इस अंक के पन्ने पलटने और उन्हें पढ़ने के बाद अपनी प्रतिक्रिया से अवश्य अवगत करवाएँगे, जिन्हें ‘पत्र’ कॉलम में प्रकाशित किया जाएगा।
