भारतीय ग्रामीण जीवन के यथार्थ को कलात्मकता के साथ प्रस्तुत करनेवाले कथाकार के रूप में फणीश्वरनाथ रेणु हमारे लिए चिर-परिचित हैं लेकिन एक निबन्धकार के रूप में वे बहुत ही कम चर्चित हुए हैं। रेणु के आठ निबन्ध प्रकाशित हुए हैं। उनकी सम्पूर्ण रचनावली के पाँचवें भाग में संकलित इन निबन्धों की मुख्य धुरी है व्यक्तित्व निर्माण तथा राष्ट्र निर्माण। शिक्षा, साहित्य, कला, राजनीति जैसे सभी तत्त्व इस महान लक्ष्य की पूर्ति के उपकरण मात्र हैं। उनके निबन्धों को पढ़ते हुए हमें ऐसा महसूस होता है कि उनमें अभिव्यक्त सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, साहित्यिक तथा व्यक्तित्व विकास सम्बन्धी जो भी विचार हैं, वे उत्तरोत्तर प्रासंगिक होते आ रहे हैं।व्यक्तित्व : ‘सामाजिक कार्यकर्ताओं से दो शब्द’, ‘राष्ट्र निर्माण में लेखक का सहयोग’ तथा ‘वह एक कहानी’ ये तीनों निबन्ध व्यक्ति निर्माण के विभिन्न चरणों का विश्लेषण करने वाले हैं। ‘सामाजिक कार्यकर्ताओं से दो शब्द’ को इसके प्रथम चरण के रूप में देख सकते हैं। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। इसलिए रेणुजी ने यह बताने का प्रयास किया है कि व्यक्ति का विकास मात्र उसके शारीरिक या अन्य भौतिक आवश्यकताओं की प्राप्ति से सम्भव नहीं। मनुष्य के मन और बुद्धि की क्षमता इन्द्रियों की क्षमता के परे की है। यदि व्यक्ति का और उससे संचालित समाज का विकास ही हमारा लक्ष्य है तो उसे मानसिक तथा बौद्धिक उन्नति की ओर ले जाना होगा। मन और बुद्धि के संयोग से प्राप्त आंतरिक शक्ति व्यक्ति को अपने पैरों पर खड़े होने के लिए सक्षम बनाती है। स्वस्थ पारिवारिक एवं सामाजिक वातावरण में पला व्यक्ति स्वाभाविक रूप से यह संतुलन प्राप्त कर लेगा ही। इसमें जब कभी कमी हो तो व्यक्ति अपना संतुलन खो बैठेगा। आज का समाज जिन समस्याओं का सामना कर रहा है उनमें से प्रमुख और सबसे ख़तरनाक समस्या है मानसिक दृढ़ता की कमी। इसीलिए सामाजिक कार्यकर्ताओं का यह दायित्व बनता है कि वे प्रत्येक व्यक्ति के लिए सहारा बनें। रेणुजी ने 1945 में ‘सामाजिक कार्यकर्ताओं से दो शब्द’ नामक जो लेख लिखा था, उसमें जिन ख़ामियों की चर्चा की गई थी, वे पिछले 75 सालों में उत्तरोत्तर बढ़ती हुई नज़र आ रही हैं। इस ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हुए लेखक बताते हैं कि भारतीय समाज ने व्यक्ति की इन आवश्यकताओं की ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया, जबकि विदेशों में कम-से-कम पिछले 200 सालों से इसका प्रावधान मौजूद है। इस तथ्य की पुष्टि करने के पहले हमें पाश्चात्य और भारतीय सामाजिक ढाँचे की ओर ध्यान देना होगा। भारतीय समाज हमेशा व्यक्ति के सम्बन्धों को बड़ा महत्व देते आए हैं। ‘बहुजन हिताय’ की भावना से सिंचित ऐसे एक समाज में व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए कोई स्थान नहीं था। संयुक्त परिवार का ढाँचा प्रत्येक व्यक्ति में त्याग और सेवा की भावना को जगाने में सक्षम था। किसी भी बच्चे के लिए अपना पड़ोसी चाचा-चाची या काका-काकी था। मनुष्य के व्यवहार में हर कहीं एक प्रकार का अपनापन झलकता था। ऐसी परिस्थिति में प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे का सहारा बन सकता था। जीवन मूल्यों, त्याग एवं सेवा भावों से पोषित समाज में जीवन का लक्ष्य कभी भी भौतिक उन्नति मात्र नहीं होगी। आपसी विश्वास से परिचालित, उदार सामाजिक ढाँचे में मन की बीमारी के लिए कोई जगह ही नहीं उठती थी लेकिन परिस्थितिवश आजकल इस सामाजिक ढाँचे में बहुत अधिक परिवर्तन हुआ है। इस तथ्य को हम अनदेखा नहीं कर सकते। व्यक्ति की आत्मकेंद्रिता ने अणु परिवारों को जन्म दिया। पारिवारिक विघटन या मानवीय सम्बन्धों का विघटन व्यक्ति में कई तरह के संघर्षों का कारण बना। अकेलापन, कुंठा, संत्रास आदि के घेरे में बंधे एक-दूसरे पर शक करने वाले अपनों के बीच आज हमें मन:शान्ति के लिए बाहरी स्रोतों को ढूँढना पड़ रहा है। इस स्थिति की ओर लेखक हमारा ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। विभिन्न क्षेत्रों में दूसरों का सहारा बनने लायक विशिष्ट प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्तियों की आवश्यकता की ओर भी वे इशारा करते हैं।span class="">